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Friday, February 7, 2020

आत्मा से परम् आत्मा की ओर!!किरण से सूरज की ओर!!लहर् से सागर की ओर!!

खुद से खुदा की ओर!!आत्मा से परम्आत्मा की ओर!!
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पुरोहितवाद,जातिवाद, पंथवाद, पूंजीवाद, सत्तावाद,सामन्तवाद आदि ने हमें आगे नहीं बढ़ने दिया है।हमारी अज्ञानता, रुचि, नजरिया, प्राथमिकता आदि भी इसमें सहायक रही है।

हम कहते रहे है..हम आत्मा से ही परम् आत्मा की ओर हो सकते हैं।हमारे तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।स्थूल का विकास तो संसार में कुछ निश्चित समय तक होता है लेकिन हमारे सूक्ष्म का विकास निरन्तर होता रहता है।यदि वह संकुचित हो गया तो हम नरक योनि, भूत योनि आदि की सम्भावनाओं में जीने लगते है ,यदि विस्तृत तो पितर योनि, देव योनि, सन्त योनि की ओर अग्रसर हो आत्मा की ओर,जगतमूल की ओर,अनन्त की ओर अग्रसर हो जाते हैं।

धर्म व आध्यत्म को लेकर व्यक्ति भ्रम में है।हमारा धर्म बड़ा है,हमारा देवता बड़ा है,हमारा महापुरुष बड़ा है,हमारी जाति बड़ी हैआदि आदि ......इससे हम बड़े नहीं हो जाते हम आर्य नहीं हो जाते हम इंसान नहीं हो जाते।सदियों से हम अपने सूक्ष्म को किस स्तर पर ले जा पाए?हमारे ग्रन्थों का हेतु रहा है-आत्म प्रबन्धन व समाज प्रबन्धन।दोनों में हम असफल हुए हैं।

एक्सरसाइज करने का मतलब क्या है?अभ्यास में रहने का मतलब क्या है?हम अभ्यासी बनें।हम अभी न इंसान न धार्मिक हैं,न आध्यात्मिक।धार्मिक होना आध्यात्मिक होना काफी दूर की बात है अभी।इसलिए हम अभ्यासी है अभी।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।

 पहला लक्षण – सदा धैर्य रखना, दूसरा – (क्षमा) जो कि निन्दा – स्तुति मान – अपमान, हानि – लाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना; तीसरा – (दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे, चैथा – चोरीत्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल – कपट, विश्वास – घात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पर – पदार्थ का ग्रहण करना, चोरी और इसको छोड देना साहुकारी कहाती है, पांचवां – राग – द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल, मृत्तिका, मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी, छठा – अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना, सातवां – मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ, दुष्टों का संग, आलस्य, प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास से बुद्धि बढाना; आठवां – (विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना; सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना इससे विपरीत अविद्या है, नववां – (सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी; तथा दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण है ।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।

धर्म से हम दूर हैं।हमारे धर्म तो हमारी असलियत है,हमारी आत्मा है।स्व(आत्मा)तन्त्रता है।

हम किससे जुड़े हैं ये महत्वपूर्ण नहीं है।महत्वपूर्ण है-हम हो क्या रहे हैं?समाज की नजर में नहीं वरन कुदरत की नजर में-परम् की नजर में।चरित्र समाज की नजर में जीना नहीं है वरन परम् की नजर में जीना है।इस बहस से इस कथा से हमारा भला होने वाला नहीं है कि हम समझ लें कि अमुख अमुख बड़ा है।महत्पूर्ण है अपनी यात्रा।अपने सूक्ष्म की यात्रा।खुद से हम किधर गए है?स्व से हम किधर गए है?कोई बड़ा है,इसे मानने से ही हम बड़े नहीं हो जाते।सहज मार्ग राज योग में हेतु है आत्मा को परम्आत्मा होना।
नोट:यदि इस विचार को चाहते हो तो आओ हमारे संग।
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