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Tuesday, April 5, 2011

कन्यापूजन व अर्द्धनारीश्वर शक्ति !



                     गुप्त काल से भारत में प्रत्येक वर्ष चैत्र व आश्विन मास में नवरात्र पर्व मनाया जा रहा है.शिव का अस्तित्व उसकी शक्ति पर ही आधारित है.'श्री अर्द्धनारीश्वर शक्तिपीठ ,नाथ नगरी,बरेली ,उप्र ' के संस्थापक श्री राजेन्द्र प्रताप सिंह'भैया जी' का कहना है -


" मूल तत्व से ही सब है और आखिर में उसी में ही समा जाता है.वह अद्वेत व निराकार है.लेकिन सृष्टि व प्रलय के लिए अकेला वह तत्व असफल है.ऐसे में अद्वेत का द्वेत मेँ आना आवश्यक है लेकिन द्वेत में ही फंसे रहने से मोक्ष सम्भव नहीं है . दुनिया की तमाम साधनाओं का उद्देश्य द्वेत से अद्वेत में छलांग लगाना है.द्वेत ही अद्वेत हुआ है,द्वेत को प्राप्त हुए बिना हम शान्ति व सन्तुष्टि नहीं पा सकते.हमारे द्वेत का अद्वेत रुप है.अर्द्धनारीश्वर रुप.हमारे सनातन विद्वान कह चुके हैं कि ब्राह्माण्ड की सारी शक्तियां हमारे अन्दर उपस्थित हैं लेकिन हम कस्तूरी मृग की तरह इधर उधर अपने मन व शरीर को लगाते हैं.आत्म साक्षात्कार के बिना हम अपनी यात्रा <चेतना अपनी यात्रा >तय नहीं कर सकते.अपने अर्द्धनारीश्वर स्वरुप को पहचाना बड़ा जरुरी है."




खुसरो मेल समाचार पत्र चार अप्रेल को लिखता है





" दिन को शिव(पुरुष) रूप में तथा रात्रि को शक्ति(प्रकृति )रुपा माना गया है.एक ही तत्व के दो स्वरुप हैं."


नवरात्र पर्व रात्रि प्रधान माना गया हैं.अन्धेरे या अज्ञान मेँ भी हमारा मन शिवमय बना रहे,जगत के लिए कल्याणकारी बना रहे व तामसी विकार युक्त शक्तियों को नष्ट करे,यही साधना रहे.इसका प्रशिक्षण होता है इन व्रतों के माध्यम से .लेकिन आज के साधकों व भक्तों को देख कर हमें अफसोस होता है.प्राचीन जिन व्यवस्था अर्थात अपनी इन्द्रियों को जीतने की व्यवस्था जब निर्गुण से सगुण हो गयी व चरित्र से चित्र पर आ गयी तो कृत्रिम व्यवस्थाओं व भौतिक भोगवाद की ओर अन्धाधुन्ध दौड़ में इंसान ने इंसान को अपनी आत्मा अर्थात अपने शिव से ही अपने को अलग कर दिया.वह कह तो देता है कि पुरूष व स्त्री एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैं लेकिन यह सोंच अब सिर्फ शरीर तक रह गयी है व गुप्तकाल के बाद दोनों के बीच का पवित्र सम्बन्ध काम से कुण्ठित हमारे मन ने अपवित्र बना ही डाला .एक दूसरे प्रति दूरियां भी बना डालीं.आज स्थिति यह है कि दोनो एक साथ चल कर भी जीवन को मधुर नहीं बना पा रहे हैं .इसका एक मात्र कारण हमारा संकीर्ण नजरिया है.


02अप्रेल2011,दैनिक जागरण अपने संगिनी परिशिष्ट में पृष्ठ तीन पर ठीक ही लिखता है '' फिर नवरात्र के साथ कन्या पूजन की रस्म निभायी जायेगी और कुछ घंटों के लिये आस्था की यह नौटंकी हमारे जख्मों पर रुई का फाहा रख देगी.ठंडक मिलेगी उस रिसते हुए घाव को जो बच्चियों की दुर्दशा देखकर हमारे मन और जीवन में हुआ है.शर्मनाक है पुरुष का यह घिनौना चेहरा जिसके लिय महिला मात्र सेक्स डिवाइस है और हम फिर भी कहते हैं कि भारत में मातृशक्ति की उपासना करते हैं.
" अब हमारा मन किसी भी हालत में यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि नारीशक्ति मातृशक्ति होती है.क्यों न हम अपनी संस्कृति पर गर्व करते रहें लेकिन यह गर्व झूठा ही है.



हम वस्तव मे वह होते हैं जो हम नजरिया रखते हैं व अपनी जिन्दगी मे जो चाहते हैं.लिंगभेदी व करुणाहीन आध्यात्मिक होना तो दूर व देवि भक्त भी नहीं हो सकता.भक्त न तो कायर होता न ही दबंग.अपने निजी स्वार्थों के लिए मानव को व कष्ट नहीं पहुंचाता.वह सांसारिक इच्छाओं के प्रति तटस्थ होकर भगवत्ता में लीन होता है.अफसोस कि वह सांसारिक वस्तुओं की ही लीनता मन मे रखता है.प्रकृति में स्त्री पुरुष दोनो का सम अस्तित्व व सम भोग का अधिकार होता है.नारी शक्ति मातृशक्ति के सदृश्य होती है,ऐसे मे काम भाव सिर्फ सन्तान उत्पत्ति के लिए होता है. शिव तत्व अद्वेत रहने तक काम को मुर्छित रखते हैं ,द्वेत होने के बाद ही रति के लिए काम को जगाते न कि भोग के लिए.मैं निर्गुण अभी तक कोई भी धार्मिक व आध्यात्मिक नहीं पाये है.सभी पाखण्डी या साधक पाये है. भक्त भी नहीं,क्योकि दीवानी बिना भक्त भक्त नहीं.भक्त तो मीरा ,सूरदास,कबीर ,चैतन्य प्रभु,रसखान,आदि होते है ,जिसमेँ संसार प्रति दीवानगी नहीं वरन आत्म साक्षात्कार व सब जीवों प्रति समदृष्टि होती है.संसारियों में न कोई अपना होता है न पराया.अफसोस ब्राह्मण जाति का अपने को मान कर अहम मे रखने वाला भी ग्रन्थों के इस दर्शन के विरोध में खड़ा है.शायद इसी लिए तो यह कबीर ,रैदास,तुलसी,आदि की उपस्थिति में इनके विरोध में रहे हैं.यह हिन्दू समाज का एक बड़ा कलंक है कि इन ब्राहमणों के सामने ग्रन्थों की बात करो तो यह इधर उधर देखते नजर आते हैं या फिर इधर उधर की बातें करते हैं.न मानते है न ही जानते हैँ.

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