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Saturday, August 22, 2020

ब्रह्मांडीय मानव शरीर:सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर:अशोकबिन्दु

 ब्रह्मांडीय मानव शरीर:सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर::अशोकबिन्दु

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दुनिया के सन्तों ने जो कि  वास्तव में सन्त है और जाति मजहब,कर्मकांडो से ऊपर उठ कर सिर्फ प्रकृति अभियान व अनन्त यात्रा के साक्षी हैं। ढाई हजार वर्ष पहले तक आज की  भांति कट्टरता व सीमांकन न था।विश्व के सभी सन्त कहीं भी आ जा सकते थे।


सन्त परम्परा में एक हुए हैं- राम तीर्थ।जब वे अमेरिका पहुंचे तो पत्रकारों ने उनसे प्रश्न कर दिया यह दुनिया किसने बनाई उनके मुंह से जवाब निकला -हमने। अगले से सुबह दुनिया के तमाम अखबार उनकी आलोचना कर रहे थे लेकिन कुछ संत उनका समर्थन कर रहे थे ।आखिर ऐसा क्यों ?किसी सूफी संत ने देवी देवताओं से तक ऊपर संतो को माना है ।अयोध्या में श्री राम वनवास के दौरान संतो के सामने सिर ही झुकाते रहे ।

अनंत यात्रा का जब हम विभिन्न  शास्त्रों के माध्यम से अध्ययन करते हैं तब भी हमें पता चलता है कि एक दशा ऐसी होती है जब व्यक्ति पूरे ब्रह्मांड,अनंत यात्रा से जुड़ सकता है। 



कहा गया है कि ऋषि पद वसु एक क्षेत्र विशेष की प्रकृति को भी प्रभावित करता है।इससे आगे का पद ध्रुव तो काफी व्यापक होता है।इसके बाद भी आगे अनेक आध्यत्मिक स्तर व पद हैं।



रामकृष्ण परमहंस ने तक सिर्फ 01.98 प्रतिशत से कम को जगत मूल से जुड़ा बताया है।ये भी बस जगत मूल के चारो ओर चक्कर लगाते मिलते हैं। समाज व दुनिया के पैमानों से उसे नहीं नापा जा सकता जो अनन्त है या अनन्त की ओर है।मीरा की भक्ति तो लोक मर्यादा ,कुल मर्यादा को चाहते हुए भी न चाह पातीं। अनन्त तरंगों का साक्षी होना तो चमत्कार बन जाता है लेकिन समाज व मानव की धारणाओं पर ठोकर।


हमारा व्यक्तित्व अनन्त यात्रा की जिम्मेदारी है।बस, उसे उजागर करना होता है।अनन्त यात्रा के समक्ष, ब्रहाण्ड व ब्रह्मण्डों के समक्ष हमारा व्यक्तित्व क्या है?कुछ भी नहीं और सब कुछ।सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर।



हम तीन रूप रखते हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। आइंस्टीन तो कहते हैं कि हमें ईंट में तक रोशनी  दिखाई देती है।उनकी डायरी को अभी सिर्फ 10 प्रतिशत ही समझा जा सका है।


हम पांच तत्वों से बना अपना ये शरीर रखते हैं।ये आकाश तत्व क्या है? हम अपने में एक प्रकाश व्यक्तित्व भी रखते हैं।जिसे हम ब्रह्मांडीय मानवीय व्यक्तित्व भी कह सकते हैं। हमारे अंदर विकास की अनन्त सम्भावनाएं छिपी हुई हैं।इस लिए हम विकासशील है लेकिन पूर्व विकसित नहीं।जहां अनन्त है वहां तो निरन्तर है।




बुध अष्टमी; झूसी की स्थापना, इला से विवाह::अशोकबिन्दु

 हमें तो जाना है कि बुद्ध व मनु(सूर्य) साकेत क्षेत्र में आ गए थे।

बुद्ध ने वर्तमान प्रयाग स्थान पर एक नगर बसाया, जिनका विवाह मनु(सूर्य)पुत्री इला के साथ हुआ। भारतीय पौराणिक कथाओं में प्रयाग का बड़ा महत्व है।एक जगत मूल से प्रकृति व प्राणी सरक्षण हेतु एक शक्ति विष्णु बाल्य रूप में यहीं अवतरित हुई, ऐसा कहा जाता है।


इला, अल, यल्ह, आल, all ....आदि शब्दों की उत्पत्ति भाषा विज्ञान में एक ही भारोपीय भाषा मूल के केंद्रीय आर्य भाषा के शब्द से मानी जाती है। इस पर अभी और शोध करने की जरूरत है कि इलाहाबाद में इलाहा शब्द कहीं यहीं से तो नहीं।

बताते है न,प्रियव्रत व उनका कबीला कूर्मअंचल/उत्तराखण्ड, साइबेरिया का क्षेत्र रहा ही, उसकी धमक यूरोप के रोम तक थी।रोम की स्थापना प्रियव्रत ने ही की थी।रोम का प्राचीन पुरातत्विक आधार भारतीय ही है।भाषा विज्ञान के अनुसार रोमन भाषा व कुमायूं भाषा में अनेक शब्द कामन हैं। उत्तानपाद के भाई प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र अर्थात ध्रुव के चचेरे भाई की नौ सन्ताने थीं।जिनमे से एक सन्तान थी-कुरू। आगे चल कर कुरु उत्तराखण्ड, चीन, साइबेरिया, कोरिया आदि क्षेत्र के राजा बने थे। किसी को आपत्ति हो तो हो।हम कहना चाहेंगे कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा क्या सब शुद्र है?इस सवाल पर विद्वान व शास्त्र ज्ञाता सवर्णों तक का कहना है कि नहीं।ऐसा नहीं।अशोक सिंघल भी ऐसा कुछ कह चुके हैं।पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ आदि भी ऐसा कह रहे हैं। इस पर भी चर्चा की जरूरत है कि शक,हूढ़ आदि वर्तमान में कहां खफ गए?एक शब्द है युरोशियन,ये भारत में किन लोगों में खफे हुए हैं?


#शेष

Friday, August 21, 2020

हार्टफुलनेस कटराविधानसभा वार्षिक पंचांग::अशोकबिन्दु

 श्री रामचन्द्र मिशन, उपकेंद्र &हार्टफुलनेस कटरा विधान सभा, रुहेलखण्ड राज्य, बरेली मण्डल, उत्तर भारत।पिन:242301.एशिया।

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(01)चैत्र शुक्ल प्रतिपदा:भारतीय नव वर्ष

(02)चैत्र शुक्ल अष्टमी: श्री दुर्गा अष्टमी

(03) चैत्र शुक्ल नवमी : श्री रामजन्म महोत्सव

(04)14 अप्रैल:डॉ भीम राव अम्बेडकर जयंती

(05)19 अप्रैल बाबूजी महाराज निर्वाण दिवस

(06)22 अप्रैल : विश्व पृथ्वी दिवस

(07) 30 अप्रैल :बाबू जी महाराज जन्मदिन

(08)वैशाख शुक्ल.15:बुद्ध पूर्णिमा/कूर्म जयंती

(09)ज्येष्ठ शुक्ल.11: निर्जला/कूर्म जयंती

(10)सन्त कबीर जयंती/वट पूर्णिमा

(11)आषाढ़ शुक्ल.01::गुप्त नव रात्र प्रारम्भ

(12)18 जून ::श्रुतिकीर्त जयंती

(13)21जून:विश्व योग दिवस

(14)आषाढ़.15::गुरु पूर्णिमा

(15) 24जुलाई:: चारीजी जन्मदिन

(16) भाद्र पद कृष्ण अष्टमी::श्री कृष्ण जन्माष्टमी

(17)14 अगस्त:लाला जी महाराज निर्वाण दिवस

(18)05सितम्बर:भारतीय शिक्षक दिवस

(19)14सितम्बर::हिंदी दिवस

(20)21 सितम्बर ::विश्व शान्ति दिवस

(21)28सितम्बर::दाजी जन्मदिन

(22)02 अक्टूबर::विश्व अहिंसा दिवस

(23)अश्विन शुक्ल 10:विजय दशमी

(24)अश्विन शुक्ल 15::शारद पूर्णिमा/ वाल्मीकि जयंती

(25)कार्तिक शुक्ल 15::गुरुनानक जयंती

(26)10दिसम्बर:विश्व मानवाधिकार दिवस

(27)20दिसम्बर ::चारीजी निर्वाण दिवस

(28)25दिसम्बर::कल्पवृक्ष दिवस/अचेतन प्रबन्धन दिवस

(29) 09जनवरी :सिद्धिकीर्ति जन्मदिन

(30) 12 जनवरी : युवा दिवस

(31)माघ शुक्ल05:बसन्त पंचमी/02फरबरी::लाला जी महाराज जन्म दिन

(32) माघ शुक्ल.01::गुप्त नव रात्रि व्रत प्रारम्भ

(33)माघ शुक्ल.15::सन्त रविदास जयंती

(34)08मार्च : महिला दिवस/प्रेम राज जन्म दिन

................................#अशोकबिन्दु



Sunday, August 16, 2020

इस्लाम का स्वर्गीय धर्म क्या है : अशोकबिन्दु

   " मैंने उन घटनाओं को जिनका लिखना सावधानी की दृष्टि से बड़ा अनुचित था, केवल दीन के दर्द तथा - ' इस्लाम के स्वर्गीय धर्म'-के प्रति जो अब अप्राप्य हो गया है,के शोक के कारण लिखने की धृष्टता की है।"--इन पंक्तियों में 'इस्लाम के स्वर्गीय धर्म'-से क्या मतलब है?

इन पंक्तियों को लिखने वाला कौन है?

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूँनी इन पंक्तियों को लिखने वाले हैं।

उन्होंने आगे लिखा है-यह इतिहास वह इस्लाम की अवनति से दुःखी हो तथा अपने विधर्मियों से घृणा, द्वेष एवं जलन के कारण लिख रहा है।

बदायूँनी के पिता का नाम शेख मुलुक शाह था।इनका जन्म 21 अगस्त सन 1540 ई0 में तीवा नामक स्थान पर हुआ था। 18 वर्ष की आयु में आप पिता के साथ आगरा आ गए। सन1561 ई0  में पिता की मृत्यु के बाद आगरा से बदायूँ आ गए। बदायूँनी संस्कृत, अरबी, फ़ारसी आदि भाषाओं का ज्ञाता था। उसने अकबर के आदेश से अनेक ग्रंथ लिखे थे।


आखिर  ' इस्लाम के स्वर्गीय धर्म'-से मतलब क्या है?






Saturday, August 15, 2020

आत्माओं का तन्त्र -स्वतन्त्र: अशोकबिन्दु


भारत का कोई जंगली इलाका।

उसे जंगल में भटकते दो साल हो गए थे लेकिन उसे उसकी गरिमा न मिली थी।

गरिमा कौन?

गरिमा उसके साथ कक्षा 01 से 12 तक साथ पड़ी थी।

उसके पिता उसके नगर के ही एक प्राइवेट कालेज में पढ़ाते थे।

बड़ी मुश्किल से उसका जीवन चलता था वह अपने माता पिता की इकलौती बेटी थी। स्वाभाविक है कि उसे काफी लाड़ प्यार से रखा जाता था।  


30 अगस्त 2020 की बात कोरोना संक्रमण के दौरान उसके माता पिता चल बसे।

वह अब अकेली।

उसके माता पिता का ख्वाब था कि वह आई ए एस आफिसर बने।


जीवन बड़ा मुश्किल हो गया था। उसके माता पिता अच्छे माहौल पाने के कारण आर्थिक समस्याओं के बाबजूद शहर में रह रहे थे। कोरोना संक्रमण में उनकी आर्थिक स्थिति और अधिक खराब हो गयी थी। गांव में तीन बीघा जमीन थी।जिस पर पिता जी के पिता के चचेरे भाई के दबंग लड़के का कब्जा था। गरिमा के दादा दादी पहले ही खत्म हो गये थे।


मुसीबत पर मुसीबत। अब पचास प्रतिशत से भी ज्यादा मुसीबत स्त्री जाति का होना। ऐसे में क्या हिन्दू क्या मुसलमान?क्या सहयोगी क्या असहयोगी? कुत्तों की तरह जून की दोपहरी में हांफते, जीभ बाहर निकले। कामाग्नि की आग से पीड़ित ..... गांव ददीयूरी शासन के सहयोग से जमीन अपने नाम करवाने की कोशिस। शासन प्रशासन सब के सब भ्रष्ट। सोशल मीडिया, आन लाइन कार्यवाहियों के कारण प्रशासन कुछ कुछ दिखावा जरूर ठीक कर रहा था। कुछ समाजिक संस्थाओं के सहयोग से वह संघर्ष तो कर रही थी। 

बिना धन अब कैसे संघर्ष, कोर्ट कचहरी।ऊपर से कोरोना संक्रमण।ऐसे में कोरोना भय ने कामाग्नि में लार टपकते छोटे बड़े, बुड्ढे पुरूष दूर रह जाते।जानबूझ कर वह खांसने आदि का,गला खंगारने का नाटक करती रहती। कुछ जेवर आदि बेंच कर काम चलाया।गांव से साल में 20-25 हजार रुपयों से कितना काम चलता।वह माता पिता के रहते ही खर्च हो गया और ऊपर से कर्जा।


ऐसा क्या हुआ कि वह जंगल में आ गयी? लेकिन कहाँ? मैं उससे क्यों न मिला।उसकी मदद करने को मैं तैयार था।मेरा बी एस सी फाइनल इस साल।बनारस में ही रहकर किराये पर कमरा लेकर रह रहा था।


अब वह सोंच रहा था, काश समय रहते गरिमा से मिल लेता।

अब ऐसे कैसे उससे मुलाकात। वह कहीं नक्सली न हो जाए?फूलनदेवी की तरह डाकू फूलन देवी न बन जाए।मजबूरी का नाम महात्मा गांधी नहीं। उसके माता पिता का तो ख़्वाब था-आई ए एस अधिकारी के रूप में गरिमा को देखना लेकिन..?

हतास निराश हो वह युवक वापस बनारस आ गया । उसे भी बी एस सी फाइनल की परीक्षा दे आई ए एस की परीक्षा में बैठना था।उसके पिता भी क्या कोई करोड़ पति अरबपति की औलाद थे?


एक दिन उसके कमरे पर कुछ असन्दिग्ध लोग आ पहुंचे।

आप लोग कौन?

तू जंगल में क्या कर रहा था? हम लोग नक्सली हैं।हम लोग समझ रहे थे कि तू सरकार के लिए जासूसी तो नहीं करता कहीं?इन्क्वारी में आ पहुंचे।


वही जंगल में पकड़ कर हमें दबोच लेते।

फिर युवक ने सारी बात बता दी।

ओह, गरिमा से प्यार करते हो? खुल कर कुछ न करो।सोशल मीडिया हैं न।कहीं उसकी नजर आपके मैसेजेस पर पड़ जाए?ओके

हम लोग यहाँ आये थे, जिक्र न करना।वैसे भी आपको क्या लेना देना?मेहनत करो,पढाई करो।हम चलते हैं।

उसने सोशल मीडिया पर सभी जगह उसके बारे में लिखा था।लगभग छह महीने बाद उसे फेसबुक मैसेंजर पर एक मैसेज मिला-स्वतन्त्र, तुम निश्चिंत रहो। मैं ठीक हूँ।मै फूलन देवी बनने नहीं जा रही हूं। माता पिता के निगाहों से गिरना नहीं चाहती। भूल गए तुम।एक बार15 अगस्त को माइक पर आपने क्या कहा था?आत्माओं का तन्त्र या अभियान ही स्वतन्त्रता है।उस पर विश्वास करो। सर जी ठीक कहते हैं, उसके मिला पत्ता नहीं हिलता-ये कहते फिरने से काम नहीं चलता।आचरण व अनुभव महत्वपूर्ण हैं।भूल गए क्या?

समय गुजरा।

अब सन 2030-31ई0!

उसे खुशी का ठिकाना न रहा जब उसे पता चला कि गरिमा आई ए एस आफिसर बन गयी है।

मीडिया में उसका साक्षात्कार था, इसके लिए श्रेय पहले माता पिता, फिर मेरे सर जी,इसके बाद मेरे मित्र स्वतन्त्र को जाता है।


स्वतन्त्र खुशी में झूम उठा लेकिन... लेकिन ....फिर...?! फिर उसके आंखों में आंसू आ गए।


Wednesday, August 12, 2020

विद्यार्थी ध्यान दें!प्राथमिकता 'पर' की ही, दुख का कारण यही।मन्दिर तो दिल होना चाहिए था,आत्मा होना चाहिए था,आत्माओं का जगत होना चाहिए था।परम् आत्मा के नाम पर, अपनेपन के नाम से कहाँ पर थे:अशोकबिन्दु

 किसी ने कहा है-लीलाधर बन कर हम भी रहें।

ये कैसे सम्भव है?जब हम स्व केन्द्रित हो जाएं, आत्म केंद्रित हो जाएं।आत्मा में हो जाएं।


हम दुखी है, कोई आत्महत्या कर रहा है-इसका मतलब की वह आत्मा से 100 प्रतिशत अलग होगया है।


गृह त्यागी....





काक चेष्टा बको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च ।
अल्पहारी गृह त्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं ॥


एक विद्यार्थी को कौव्वे की तरह जानने की चेष्टा करते रहना चाहिए, बगुले की तरह मन लगाना(ध्यान करना) चाहिए, कुत्ते की तरह सोना चाहिए, काम से काम और आवश्यकतानुसार खाना चाहिए और गृह-त्यागी होना चाहिए |
यही पांच लक्षण एक विद्यार्थी के होते है |

A student should be alert like a crow, have concentration like that of a Crane and sleep like that of a dog that wakes up even at slightest of the noise. The student should eat scantily to suffice his energy needs and neither less not more. Also he should stay away from chores of daily house hold stuff and emotional attachment

यहां पर हमने विद्यार्थी के लक्षणों का जिक्र क्यों कर दिया?


हमारा नजरिया हमारी श्रद्धा अत्यंत महत्वपूर्ण है  जो हमारी असलियत है उससे ही हम यात्रा कर सकते हैं आत्मा की ओर आनंद की ओर अपनी निजता की ओर।

हमारी प्राथमिकता क्या है? हमारी प्राथमिकता हमारा रुझान है।


हम जब आश्रम जाते है,हम अन्य दिनों की अपेक्षा बेहतर होते हैं।हम मन्दिर में शांत भाव में बैठे होते है तो अन्य लम्हों के अलावा बेहतर होते है। इसके लिए हम ही उत्तरदायी हैं। हम परतन्त्र हैं।अरविंद घोष कहते है-'पर' के तन्त्र में रहना। हम 'स्व' में नहीं होते।हम अपनेपन में नहीं होते।

हम जब प्रकृति ,आश्रम या मन्दिर में कहीं शांत या मौन में होते हैं तो अपने नजदीक होते हैं।

विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया, इसका मतलब?!
साधक हो या विद्यार्थी निरन्तर अभ्यास में होना चाहिए।ये अभ्यास हमारी आदत बदलता है, नजरिया बदलता है। हम वक्त किस विचार में गुजरते हैं, ये महत्वपूर्ण है।इस लिए महत्वपूर्ण है चिंतन, मनन, कल्पना जो हमारे संकल्प को मजबूत करे।

'पर' के साथ हमारा सम्बन्ध ही धर्म या अधर्म है। जो हमारे भविष्य का निर्धारक है। हम  अपने लिए क्या करते हैं? हम अपनेपन के अभ्यास से ही दूर हैं।हाड़ मांस शरीर,अन्य हाड़ मास शरीर के लिए जीवन भर जीते रहे।जब इस हाड़ मास को दिक्कत हुई या कोई हाड़ मास शरीर मर गया तो उदास ,निराश हो गए? बस, यही है- अपने लिए जीना?ये तो धोखा दे रहा है?मर रहा है प्रति क्षण या मर गया। हम इसे ही सँवारते रहे? जिन हालातों में हम दुखी है,उन्ही हालातों में कोई सुखी भी है?जीवन जीने का मतलब क्या है?


जो छूट जाना है,उसी में जीवन मग्न।आश्रम या मन्दिर में,प्रकृति में जब हम जिन भाव व नजरिया में होकर मग्न रहते हैं,उनमें हर वक्त रहने का अभ्यास ही जीवन जीना है।पूजा है-वे भाव व विचार में रहना। कुर्बानी यही है,उस भाव विचार के लिए वह छूट जाना जो छूट ही जाना है।जो 'पर' है, उसके साथ बस लीला करना।जो छूट जाना है,उसके साथ बस लीला करना।

हम बैसाखियों के सहारे टिके रहते हैं जीवन भर।जब वे भी साथ छोड़ देती है तो क्या हाथ लगता है?मन्दिर में जाके राम राम, राधे राधे, श्लोक आदि जपते रहे, हवन करते रहे।अब हत्थे क्या है?प्राण शरीर छोड़ रहे हैं।बुद्धि दिमाग काम नहीं कर रहा।अचेतन मन तो कुछ और जप रहा था। मन में आत्मा नहीं आया।आत्मा में मन नहीं आया।बैसाखियाँ कब तक साथ निभाएंगी?हमारी चेतना व समझ किस स्तर पर है?'पर'में ही।
प्राथमिकता किधर थी? हमारा मन्दिर तो दिल होना चाहिये था।आत्मा व आत्माओं का संसार होना चाहिए था।परम् आत्मा के नाम से कहाँ थे?


आश्रम गए, मन्दिर में गये, गुरुजी के सामने बैठे तब तक ठीक रहा लेकिन घर पर अपने कार्यक्षेत्र में? हमारा निजत्व क्या होता है?हम अपने में हैं ही नहीं।अपनत्व में है ही नहीं।हम अपने अहसास में हैं ही नहीं। हम सीमितता में है,हम समाजिकता में है,हम संसार में है;उसी के पैमाने से निजत्व को नापने की कोशिस करते है।उसे नापने की कोशिस करते हैं जो अनन्त है।जो अजन्मा है।जिसका नाश हो जाना है,उसके पैमाने से तौलते हैं अनन्त को।काम तो अनन्त से आता प्रतीत होता है।जो ऊर्जा अनन्त से आती है, जो चेतना आगे से आती है वह हमारी इन्द्रीयिओं में मंडराने लगती है।सांसारिक व सामाजिक आवश्यकताओं में मंडराने लगती है।यही हमारी प्राथमिकता हो जाती है।हमारी इंद्रियां सीमित क्षमता रखती हैं, हम सीमित संसाधन रखते हैं।उसमें सूक्ष्म व सूक्ष्मतर शक्तियों को उलझा देते हैं।बात प्राथमिकता की है। किसी की आय मात्र 5-8 हजार रुपए है, कोई उसको कपड़ों ,जेवर, समाज के कार्यक्रमों ,चमक, धमक, दिखावा में लगा देता है।कोई उस आय से कुछ बचत करता है, नँगा नहीं रहता लेकिन ऐसे कपड़े पहन लेता है,
बस शरीर ढक जाए।साधारण रूखा सूखा खाने में खुश।अन्य से तुलना नहीं।प्रकृति से निशुल्क इलाज। आयुर्वेद का ज्ञान।योग का ज्ञान।अपने अंदर स्थित आत्मा की आवश्यकताओं में भी कोशिस।ज्ञान विज्ञान में कोशिस। प्राथमिकता क्या है, ये
महत्वपूर्ण है।कोई सिर्फ समाज की नजर में बेहतर दिखने के लिए कपड़े पहनता है कोई सिर्फ शरीर ढकने के लिए।


अभिवावक एक कल आये।कक्षा छह में अपने पुत्र का एडमिशन करवाना था।पांच पक्षियों के नाम बच्चे को नहीं पता।
फलो के नाम नहीं पता।संज्ञा की परिभाषा नहीं पता।साधारण गुणा भाग नहीं पता।अभिवावक सामने ही कह रहा है कि ये सब नहीं पता?अभिवावक को अब पता चल रहा है कि अब नहीं पता?घर में, जीवन में अभिवावक की प्राथमिकता क्या है?नजरिया क्या है?घर का वातावरण क्या है? इच्छाएं तो दुःख का कारण है, बुद्ध 2500 वर्ष पहले ही कह गए।सहज मार्ग की प्रार्थना में भी कहा गया है-"जो हमारी उन्नति में बाधक है।"
शादी का ख्वाब तो कक्षा07-08 में आते आते ही चाहने लगे थे। किशोरावस्था तो तूफानी दशा है।उसमें हमारी प्राथमिकता क्या बन गयी?ये जमाना भी उल्टा है।हर बच्चा कोई न कोई प्रतिभा लेकर आता है लेकिन उससे दूरी। अन्य किसी से तुलना कर रहे हैं?तुलना करवायी जा रही है।शिक्षा प्रणाली भी ऐसी सलेब्स पहले का तय।टॉपर भी जो हैं, वे रटे जा रहे हैं।अंदर कुछ उनके अंदर भी पल विकसित हो रहा है जो भविष्य में जटिलता ही पैदा करेगा। वह अब सनकी है जो किताबों पर चिंतन मनन, कल्पना करता है।महापुरुषों की वाणियों पर चिंतन ,मनन, कल्पना करता है।आचरण की प्रबन्धन की उससे तुलना करता है।

कहने के लिए बच्चे पढ़ रहे हैं।बच्चों की फीस, कपड़ा आदि में खर्च कर रहे हैं।बच्चे देखने से विद्यार्थी लग रहे हैं।कापी किताबों, ट्यूशन, स्कूल में उलझे हैं।लेकिन मनोविज्ञान कहाँ पर उलझा है?प्राथमिकता क्या है?नजरिया क्या है?मन समय कहाँ गुजार रहा है?मन पर रंग क्या चढ़ रहा है?बस,समाज की नजर में बेहतर दिखने की कोशिस है।अंदर से क्या हो रहे हैं?रुपया पैसा, गाड़ी, बंगला, पार्टियां, दाबतें आदि सब कुछ है लेकिन..?लेकिन लगा हुआ है साथ में?....चिड़ियाँ चुंग गयी खेत!

विद्यार्थी के लक्षण यहाँ पर क्यों? इस पर भी प्रकाश डालते हैं।
किसी ने कहा है कि जब इद्रियों में हम उलझ जाते हैं तो बुद्धि, दिल, आत्मा, आत्मीयता को उपेक्षित कर देते हैं।विद्यार्थी जीवन, गुरु, साधक जीवन का मतलब आखिर ब्रह्मचर्य जीवन  क्यों? हमारी चेतना व समझ कब आगे के स्तरों पर बढ़ती है?


विद्यार्थियों के लिए सन्देश!!
""""""""""""""''''''''''"""""""अशोकबिन्दु

कैरियर विशेषज्ञों का मानना है कि  श्रेष्ठ विद्यार्थियों व कम्प्टीशन तैयारी हेतु प्रतिदिन आठ घण्टा स्वाध्याय आबश्यक है। वास्तव में देखा गया है कि लगनशील या वास्तविक विद्यार्थियों को स्वाध्याय के अलावा अन्य कार्यों के लिए कम ही फ़ुर्सत मिलती है।
विद्यार्थियों को निम्न विषयों का अध्ययन प्रतिदिन आवश्यक है-
@हिंदी व्याकरण
@अंग्रेजी ग्रामर
@ संस्कृत व्याकरण
@ गणित
@ विज्ञान
@ इतिहास
@ भूगोल
@ नागरिक शास्त्र
@ अर्थशास्त्र
@अन्य

विद्यार्थियों को छोंडो,शिक्षक कहते मिल जाते हैं कि आठ आठ घण्टे कौन पढ़ता होगा?लेकिन हमने देखा है, कुछ को आठ घण्टे ही नहीं, अठारह अठारह घण्टे।पढ़ते पढ़ते सोना, सोते सोते पढ़ना।

किसी के विद्यार्थी होने का मतलब क्या है?अभ्यासी होने का मतलब क्या है?शिक्षक होने का मतलब क्या है? समाज की नजर में जीना नहीं, जातियों मजहबों की नजर में जीना नहीं वरन ज्ञान की नजर में जीना।अंतर्ज्ञान के बिना ज्ञान भी आडम्बर।






प्रकृति पर हमारे आचरण व नजरिया का असर पड़ता है,इसका नहीं कि हम खुद को आस्तिक समझते हैं या नास्तिक?हिन्दू समझते हैं या गैर हिन्दू?मुसलमान समझते हैं या गैर मुसलमान :: अशोकबिन्दु

 बाबूजी महाराज ने कहा है -

अपने को आहत नहीं करना चाहिए. अपने को दुख या सुख ,यह भाव में नहीं रखना चाहिए!


 बाबूजी ने कहा है -

अनंत यात्रा प्रलय के बाद शुरू होती है!

 प्रलय किसका???


 कल एक Facebook मित्र ने  निम्न विचार भेजें!! आपको भेज रहा हूं !!किसी ने कहा है -आचार्य है मृत्यु!

 आचार्य संस्कृति है आचरण संस्कृति !!

जो ऋषि मुनि संस्कृति के बाद पैदा हुई !!

ऋषि मुनि नबी कौन थे ??

ऋषि मुनि ने वेद अर्थात ज्ञान का 


अर्थात जो कण कण में व्याप्त है 

अर्थात जो सृष्टि के वक्त उपस्थित था-


 उसका एहसास किया!!!!!


वे ही वास्तव में सनातन थे!!


आज जो अपने को सनातनी कहते है,


वे वैदिक ज्ञान के बिना सनातनी कैसे???


तुम अपने को हिन्दू समझो या ग़ैरहिन्दू?

तुम  अपने को मुसलमान समझो या ग़ैरमुस्लमान!!

इससे प्रकृति पर असर नहीं पड़ता!!


असर पड़ता है-तुम्हारे आचरण का!!


*खुशवंत सिंह के लिखे ज़िंदगी के बारह सूत्र।*

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*इन बारह सूत्रों को पढ़ने के बाद पता चला कि सचमुच खुशहाल ज़िंदगी और शानदार मौत के लिए ये सूत्र बहुत ज़रूरी हैं।*


*1. *अच्छा स्वास्थ्य* - अगर आप पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं, तो आप कभी खुश नहीं रह सकते। बीमारी छोटी हो या बड़ी, ये आपकी खुशियां छीन लेती हैं। 


*2. ठीक ठाक बैंक बैलेंस* - अच्छी ज़िंदगी जीने के लिए बहुत अमीर होना ज़रूरी नहीं। पर इतना पैसा बैंक में हो कि आप आप जब चाहे बाहर खाना खा पाएं, सिनेमा देख पाएं, समंदर और पहाड़ घूमने जा पाएं, तो आप खुश रह सकते हैं। उधारी में जीना आदमी को खुद की निगाहों में गिरा देता है।


*3. अपना मकान* -

 मकान चाहे छोटा हो या बड़ा, वो आपका अपना होना चाहिए। अगर उसमें छोटा सा बगीचा हो तो आपकी ज़िंदगी बेहद खुशहाल हो सकती है।


*4. समझदार जीवन साथी* - जिनकी ज़िंदगी में समझदार जीवन साथी होते हैं, जो एक-दूसरे को ठीक से समझते हैं, उनकी ज़िंदगी बेहद खुशहाल होती है, वर्ना ज़िंदगी में सबकुछ धरा का धरा रह जाता है, सारी खुशियां काफूर हो जाती हैं। हर वक्त कुढ़ते रहने से बेहतर है अपना अलग रास्ता चुन लेना।


*5. आज्ञाकारी सन्तान*

अगर आपकी संतान कहना मानने वाली, इज्जत देने वाली है तो आपका जीवन स्वर्ग हो जाएगा।


*6. दूसरों की उपलब्धियों से न जलना*  - 

कोई आपसे आगे निकल जाए, किसी के पास आपसे ज़्यादा पैसा हो जाए, तो उससे जले नहीं। दूसरों से खुद की तुलना करने से आपकी खुशियां खत्म होने लगती हैं। 


*7. गप से बचना* - लोगों को गपशप के ज़रिए अपने पर हावी मत होने दीजिए। जब तक आप उनसे छुटकारा पाएंगे, आप बहुत थक चुके होंगे और दूसरों की चुगली-निंदा से आपके दिमाग में कहीं न कहीं ज़हर भर चुका होगा।


*8. अच्छी आदत* - कोई न कोई ऐसी हॉबी विकसित करें, जिसे करने में आपको मज़ा आता हो, मसलन गार्डेनिंग, पढ़ना, लिखना। फालतू बातों में समय बर्बाद करना ज़िंदगी के साथ किया जाने वाला सबसे बड़ा अपराध है। कुछ न कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे आपको खुशी मिले और उसे आप अपनी आदत में शुमार करके नियमित रूप से करें।


*9. ध्यान* - रोज सुबह कम से कम दस मिनट ध्यान करना चाहिए। ये दस मिनट आपको अपने ऊपर खर्च करने चाहिए। इसी तरह शाम को भी कुछ वक्त अपने साथ गुजारें। इस तरह आप खुद को जान पाएंगे। 


*10. क्रोध से बचना* - कभी अपना गुस्सा ज़ाहिर न करें। जब कभी आपको लगे कि आपका दोस्त आपके साथ तल्ख हो रहा है, तो आप उस वक्त उससे दूर हो जाएं, बजाय इसके कि वहीं उसका हिसाब-किताब करने पर आमदा हो जाएं।


*11. प्रसन्नचित्त रहना -*

आप हर हाल में प्रसन्न रहे

 आपका चेहरा हर समय खिला हुआ होना चाहिए। और खुशी आप सबको बांटे।


*12. अंतिम समय* -

 जब यमराज दस्तक दें, तो बिना किसी दुख, शोक या अफसोस के साथ उनके साथ निकल पड़ना चाहिए अंतिम यात्रा पर, खुशी-खुशी। शोक, मोह के बंधन से मुक्त हो कर जो यहां से निकलता है, उसी का जीवन सफल होता है।


*मुझे खुशवंत सिंह इन बातों को पढ़ने के बाद लगने लगा है कि ज़िंदगी के भी डॉक्टर होते हैं। ऐसे डॉक्टर ज़िंदगी बेहतर बनाने का फॉर्मूला देते हैं । ये ज़िंदगी के डॉक्टर  खुशवंत सिंह की ओर से ज़िंदगी जीने के लिए दिए गए नुस्खे है*

*धन्यवाद*

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Monday, August 10, 2020

जन्माष्टमी पर विशेष::महापुरुषों को याद में रखने का मतलब::अशोकबिन्दु

                      आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (स्मार्त) कल  श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (वैष्णव) है। हिन्दू(पौराणिक) पर्व मनाने में लगे हैं। हम एक हद तक इसके विरोधी नहीं हैं।

 हम अपने महापुरुषों को कैसे याद करें? अब श्रीकृष्ण को ही लेते हैं।


हम किशोरावस्था से ही मन्दिर में जाते ही पहली बार ही मूर्तियों तश्वीरों के सामने सिर झुकाते कुछ खास अनुभव करने लगे,क्योकि  चिंतन मनन हमारे जीवन का हिस्सा हो चुका था। हम मन्दिरों, प्रकृति के बीच जा कर आंख बंद कर बैठने लगें। ग्रन्थों, महापुरुषों की वाणियों पर मनन करने लगे।




श्री कृष्ण जीवन भर मुस्कुराते रहे।यहां तक कि किसी के लाशों पर रोने पर भी।वे कब रोए?


सुदामा को देख।

शंकर से  मिलने के लिए।जब वे छोटे थे।शंकर जी मिलने आये।


कब रोना चाहिए?

किसी की दीन हीन दशा पर।

महापुरुष से मिलने के लिए।


महापुरुष कौन है?


जो पुरुष(आत्मा) महान पुरुष की यात्रा पर है। परम् आत्मा की ओर हौ।


इसका मतलब क्या हुआ?

सब खामोश।


होना महत्वपूर्ण है। रीति रिवाज, कर्मकांड का सम्बंध जरूरी नहीं कि यात्रा की ओर हो,चेतना व समझ को आगे(age)की ओर लेजाने का हो,विस्तार का हो।


अर्थात सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर!


मालिक जैसा होना।


आत्मा अंदर है,इसका मतलब परम् आत्मा की संभावनाएं भी अंदर हैं।


हम सभी सपरिवार योगा के समय चर्चा कर रहे थे।हम सबसे सवाल कर रहे थे।

इसके बाद उनके जवाबों को हम संवार रहे थे।

हम मन ही मन खुश हो रहे थे कि कुछ सवालों के जवाब दोनों बेटियां दे रहीं थीं।

जैसे-


श्रुतिकीर्त- वे सुदामा को देख रोए।

सिद्धिकीर्ति- छोटे पर शंकर जी से मिलने के लिए।


हमें ध्यान आगया, जब श्रुति कीर्ति ठीक से बोलना भी नहीं आया था, वह अचानक बोली थी-"जीवन कविता है।"


कविता क्या है?गीता क्या है?मुरली क्या है? इसे अनन्त यात्रा की कल्पना, चिंतन मनन से ही आभास किया जा सकता है।


श्री श्री रविशंकर की इस बात को भी हमने पेश किया-

"जो अजन्मा है।उसका । दिन मनाने का मतलब क्या है?ज्ञान, प्रेम व शरारत की मिलीभगत।"


हमें कब रोना चाहिए?

लोगों की दीन दशा पर व महापुरुष से मिलने के लिए।


अर्थात मानवता व अध्यात्म के लिए।















Friday, February 7, 2020

आत्मा से परम् आत्मा की ओर!!किरण से सूरज की ओर!!लहर् से सागर की ओर!!

खुद से खुदा की ओर!!आत्मा से परम्आत्मा की ओर!!
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पुरोहितवाद,जातिवाद, पंथवाद, पूंजीवाद, सत्तावाद,सामन्तवाद आदि ने हमें आगे नहीं बढ़ने दिया है।हमारी अज्ञानता, रुचि, नजरिया, प्राथमिकता आदि भी इसमें सहायक रही है।

हम कहते रहे है..हम आत्मा से ही परम् आत्मा की ओर हो सकते हैं।हमारे तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।स्थूल का विकास तो संसार में कुछ निश्चित समय तक होता है लेकिन हमारे सूक्ष्म का विकास निरन्तर होता रहता है।यदि वह संकुचित हो गया तो हम नरक योनि, भूत योनि आदि की सम्भावनाओं में जीने लगते है ,यदि विस्तृत तो पितर योनि, देव योनि, सन्त योनि की ओर अग्रसर हो आत्मा की ओर,जगतमूल की ओर,अनन्त की ओर अग्रसर हो जाते हैं।

धर्म व आध्यत्म को लेकर व्यक्ति भ्रम में है।हमारा धर्म बड़ा है,हमारा देवता बड़ा है,हमारा महापुरुष बड़ा है,हमारी जाति बड़ी हैआदि आदि ......इससे हम बड़े नहीं हो जाते हम आर्य नहीं हो जाते हम इंसान नहीं हो जाते।सदियों से हम अपने सूक्ष्म को किस स्तर पर ले जा पाए?हमारे ग्रन्थों का हेतु रहा है-आत्म प्रबन्धन व समाज प्रबन्धन।दोनों में हम असफल हुए हैं।

एक्सरसाइज करने का मतलब क्या है?अभ्यास में रहने का मतलब क्या है?हम अभ्यासी बनें।हम अभी न इंसान न धार्मिक हैं,न आध्यात्मिक।धार्मिक होना आध्यात्मिक होना काफी दूर की बात है अभी।इसलिए हम अभ्यासी है अभी।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।

 पहला लक्षण – सदा धैर्य रखना, दूसरा – (क्षमा) जो कि निन्दा – स्तुति मान – अपमान, हानि – लाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना; तीसरा – (दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे, चैथा – चोरीत्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल – कपट, विश्वास – घात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पर – पदार्थ का ग्रहण करना, चोरी और इसको छोड देना साहुकारी कहाती है, पांचवां – राग – द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल, मृत्तिका, मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी, छठा – अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना, सातवां – मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ, दुष्टों का संग, आलस्य, प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास से बुद्धि बढाना; आठवां – (विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना; सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना इससे विपरीत अविद्या है, नववां – (सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी; तथा दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण है ।

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।

धर्म से हम दूर हैं।हमारे धर्म तो हमारी असलियत है,हमारी आत्मा है।स्व(आत्मा)तन्त्रता है।

हम किससे जुड़े हैं ये महत्वपूर्ण नहीं है।महत्वपूर्ण है-हम हो क्या रहे हैं?समाज की नजर में नहीं वरन कुदरत की नजर में-परम् की नजर में।चरित्र समाज की नजर में जीना नहीं है वरन परम् की नजर में जीना है।इस बहस से इस कथा से हमारा भला होने वाला नहीं है कि हम समझ लें कि अमुख अमुख बड़ा है।महत्पूर्ण है अपनी यात्रा।अपने सूक्ष्म की यात्रा।खुद से हम किधर गए है?स्व से हम किधर गए है?कोई बड़ा है,इसे मानने से ही हम बड़े नहीं हो जाते।सहज मार्ग राज योग में हेतु है आत्मा को परम्आत्मा होना।
नोट:यदि इस विचार को चाहते हो तो आओ हमारे संग।
#कबीरापुण्यसदन
#अशोकबिन्दु
#कटरा
#heartfulnesskatra

Friday, January 24, 2020

25जनवरी-03फरबरी2020ई0!!गुप्त नव रात्रि पर हमारा चिंतन::अशोकबिन्दु

25 जनवरी-03फरबरी2020ई0!!गुप्त नवरात्रि पर्व!!!
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अपनी चेतना/आत्मा/स्व/आत्मीयता/अंतर सर्वव्यापक सम्वेदना/आदि गुप्त है,अन्तर्यामी है।उसके अहसास के लिए मौन आवश्यक है। किसी मनोवैज्ञानिक ने कहा है-जीवन के शुरुआती पच्चीस साल क्रीम एज है। वही ब्रह्मचर्य है,चिरयुवापन का ,चिर ब्रह्मचर्य का,चिर ब्राह्मणत्व का ,चिर क्षत्रियत्व का।ज्ञान/प्रकाश के दो स्तर हैं-बाह्य व अंत:/स्थूल व सूक्ष्म/सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर व कारण!!हमारी सम्पूर्णता गुप्त है,अन्तर्यामी है।हमारी साधनाएं ही उसे उजागर करती हैं।वह मौन व महसूस करने का विषय है।चिंतन व मनन को सुधारने/अभ्यास का विषय है।नजरिया की सफाई का विषय है।राम कृष्ण परमहंस कहते हैं-आत्मउत्थान है जगत की सेवा।स्वार्थ व परमार्थ एक सिक्के के दो पहलू है।जीवन रूपी रथ के दो पहलू है।......सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर!! अंदर प्रकाश प्रकाश में हम।।।झरोखे से अंदर आते प्रकाश में तैरते कणों की भांति!!!
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#अशोकबिन्दु
#viveksena