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Wednesday, August 12, 2020

विद्यार्थी ध्यान दें!प्राथमिकता 'पर' की ही, दुख का कारण यही।मन्दिर तो दिल होना चाहिए था,आत्मा होना चाहिए था,आत्माओं का जगत होना चाहिए था।परम् आत्मा के नाम पर, अपनेपन के नाम से कहाँ पर थे:अशोकबिन्दु

 किसी ने कहा है-लीलाधर बन कर हम भी रहें।

ये कैसे सम्भव है?जब हम स्व केन्द्रित हो जाएं, आत्म केंद्रित हो जाएं।आत्मा में हो जाएं।


हम दुखी है, कोई आत्महत्या कर रहा है-इसका मतलब की वह आत्मा से 100 प्रतिशत अलग होगया है।


गृह त्यागी....





काक चेष्टा बको ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च ।
अल्पहारी गृह त्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं ॥


एक विद्यार्थी को कौव्वे की तरह जानने की चेष्टा करते रहना चाहिए, बगुले की तरह मन लगाना(ध्यान करना) चाहिए, कुत्ते की तरह सोना चाहिए, काम से काम और आवश्यकतानुसार खाना चाहिए और गृह-त्यागी होना चाहिए |
यही पांच लक्षण एक विद्यार्थी के होते है |

A student should be alert like a crow, have concentration like that of a Crane and sleep like that of a dog that wakes up even at slightest of the noise. The student should eat scantily to suffice his energy needs and neither less not more. Also he should stay away from chores of daily house hold stuff and emotional attachment

यहां पर हमने विद्यार्थी के लक्षणों का जिक्र क्यों कर दिया?


हमारा नजरिया हमारी श्रद्धा अत्यंत महत्वपूर्ण है  जो हमारी असलियत है उससे ही हम यात्रा कर सकते हैं आत्मा की ओर आनंद की ओर अपनी निजता की ओर।

हमारी प्राथमिकता क्या है? हमारी प्राथमिकता हमारा रुझान है।


हम जब आश्रम जाते है,हम अन्य दिनों की अपेक्षा बेहतर होते हैं।हम मन्दिर में शांत भाव में बैठे होते है तो अन्य लम्हों के अलावा बेहतर होते है। इसके लिए हम ही उत्तरदायी हैं। हम परतन्त्र हैं।अरविंद घोष कहते है-'पर' के तन्त्र में रहना। हम 'स्व' में नहीं होते।हम अपनेपन में नहीं होते।

हम जब प्रकृति ,आश्रम या मन्दिर में कहीं शांत या मौन में होते हैं तो अपने नजदीक होते हैं।

विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन कहा गया, इसका मतलब?!
साधक हो या विद्यार्थी निरन्तर अभ्यास में होना चाहिए।ये अभ्यास हमारी आदत बदलता है, नजरिया बदलता है। हम वक्त किस विचार में गुजरते हैं, ये महत्वपूर्ण है।इस लिए महत्वपूर्ण है चिंतन, मनन, कल्पना जो हमारे संकल्प को मजबूत करे।

'पर' के साथ हमारा सम्बन्ध ही धर्म या अधर्म है। जो हमारे भविष्य का निर्धारक है। हम  अपने लिए क्या करते हैं? हम अपनेपन के अभ्यास से ही दूर हैं।हाड़ मांस शरीर,अन्य हाड़ मास शरीर के लिए जीवन भर जीते रहे।जब इस हाड़ मास को दिक्कत हुई या कोई हाड़ मास शरीर मर गया तो उदास ,निराश हो गए? बस, यही है- अपने लिए जीना?ये तो धोखा दे रहा है?मर रहा है प्रति क्षण या मर गया। हम इसे ही सँवारते रहे? जिन हालातों में हम दुखी है,उन्ही हालातों में कोई सुखी भी है?जीवन जीने का मतलब क्या है?


जो छूट जाना है,उसी में जीवन मग्न।आश्रम या मन्दिर में,प्रकृति में जब हम जिन भाव व नजरिया में होकर मग्न रहते हैं,उनमें हर वक्त रहने का अभ्यास ही जीवन जीना है।पूजा है-वे भाव व विचार में रहना। कुर्बानी यही है,उस भाव विचार के लिए वह छूट जाना जो छूट ही जाना है।जो 'पर' है, उसके साथ बस लीला करना।जो छूट जाना है,उसके साथ बस लीला करना।

हम बैसाखियों के सहारे टिके रहते हैं जीवन भर।जब वे भी साथ छोड़ देती है तो क्या हाथ लगता है?मन्दिर में जाके राम राम, राधे राधे, श्लोक आदि जपते रहे, हवन करते रहे।अब हत्थे क्या है?प्राण शरीर छोड़ रहे हैं।बुद्धि दिमाग काम नहीं कर रहा।अचेतन मन तो कुछ और जप रहा था। मन में आत्मा नहीं आया।आत्मा में मन नहीं आया।बैसाखियाँ कब तक साथ निभाएंगी?हमारी चेतना व समझ किस स्तर पर है?'पर'में ही।
प्राथमिकता किधर थी? हमारा मन्दिर तो दिल होना चाहिये था।आत्मा व आत्माओं का संसार होना चाहिए था।परम् आत्मा के नाम से कहाँ थे?


आश्रम गए, मन्दिर में गये, गुरुजी के सामने बैठे तब तक ठीक रहा लेकिन घर पर अपने कार्यक्षेत्र में? हमारा निजत्व क्या होता है?हम अपने में हैं ही नहीं।अपनत्व में है ही नहीं।हम अपने अहसास में हैं ही नहीं। हम सीमितता में है,हम समाजिकता में है,हम संसार में है;उसी के पैमाने से निजत्व को नापने की कोशिस करते है।उसे नापने की कोशिस करते हैं जो अनन्त है।जो अजन्मा है।जिसका नाश हो जाना है,उसके पैमाने से तौलते हैं अनन्त को।काम तो अनन्त से आता प्रतीत होता है।जो ऊर्जा अनन्त से आती है, जो चेतना आगे से आती है वह हमारी इन्द्रीयिओं में मंडराने लगती है।सांसारिक व सामाजिक आवश्यकताओं में मंडराने लगती है।यही हमारी प्राथमिकता हो जाती है।हमारी इंद्रियां सीमित क्षमता रखती हैं, हम सीमित संसाधन रखते हैं।उसमें सूक्ष्म व सूक्ष्मतर शक्तियों को उलझा देते हैं।बात प्राथमिकता की है। किसी की आय मात्र 5-8 हजार रुपए है, कोई उसको कपड़ों ,जेवर, समाज के कार्यक्रमों ,चमक, धमक, दिखावा में लगा देता है।कोई उस आय से कुछ बचत करता है, नँगा नहीं रहता लेकिन ऐसे कपड़े पहन लेता है,
बस शरीर ढक जाए।साधारण रूखा सूखा खाने में खुश।अन्य से तुलना नहीं।प्रकृति से निशुल्क इलाज। आयुर्वेद का ज्ञान।योग का ज्ञान।अपने अंदर स्थित आत्मा की आवश्यकताओं में भी कोशिस।ज्ञान विज्ञान में कोशिस। प्राथमिकता क्या है, ये
महत्वपूर्ण है।कोई सिर्फ समाज की नजर में बेहतर दिखने के लिए कपड़े पहनता है कोई सिर्फ शरीर ढकने के लिए।


अभिवावक एक कल आये।कक्षा छह में अपने पुत्र का एडमिशन करवाना था।पांच पक्षियों के नाम बच्चे को नहीं पता।
फलो के नाम नहीं पता।संज्ञा की परिभाषा नहीं पता।साधारण गुणा भाग नहीं पता।अभिवावक सामने ही कह रहा है कि ये सब नहीं पता?अभिवावक को अब पता चल रहा है कि अब नहीं पता?घर में, जीवन में अभिवावक की प्राथमिकता क्या है?नजरिया क्या है?घर का वातावरण क्या है? इच्छाएं तो दुःख का कारण है, बुद्ध 2500 वर्ष पहले ही कह गए।सहज मार्ग की प्रार्थना में भी कहा गया है-"जो हमारी उन्नति में बाधक है।"
शादी का ख्वाब तो कक्षा07-08 में आते आते ही चाहने लगे थे। किशोरावस्था तो तूफानी दशा है।उसमें हमारी प्राथमिकता क्या बन गयी?ये जमाना भी उल्टा है।हर बच्चा कोई न कोई प्रतिभा लेकर आता है लेकिन उससे दूरी। अन्य किसी से तुलना कर रहे हैं?तुलना करवायी जा रही है।शिक्षा प्रणाली भी ऐसी सलेब्स पहले का तय।टॉपर भी जो हैं, वे रटे जा रहे हैं।अंदर कुछ उनके अंदर भी पल विकसित हो रहा है जो भविष्य में जटिलता ही पैदा करेगा। वह अब सनकी है जो किताबों पर चिंतन मनन, कल्पना करता है।महापुरुषों की वाणियों पर चिंतन ,मनन, कल्पना करता है।आचरण की प्रबन्धन की उससे तुलना करता है।

कहने के लिए बच्चे पढ़ रहे हैं।बच्चों की फीस, कपड़ा आदि में खर्च कर रहे हैं।बच्चे देखने से विद्यार्थी लग रहे हैं।कापी किताबों, ट्यूशन, स्कूल में उलझे हैं।लेकिन मनोविज्ञान कहाँ पर उलझा है?प्राथमिकता क्या है?नजरिया क्या है?मन समय कहाँ गुजार रहा है?मन पर रंग क्या चढ़ रहा है?बस,समाज की नजर में बेहतर दिखने की कोशिस है।अंदर से क्या हो रहे हैं?रुपया पैसा, गाड़ी, बंगला, पार्टियां, दाबतें आदि सब कुछ है लेकिन..?लेकिन लगा हुआ है साथ में?....चिड़ियाँ चुंग गयी खेत!

विद्यार्थी के लक्षण यहाँ पर क्यों? इस पर भी प्रकाश डालते हैं।
किसी ने कहा है कि जब इद्रियों में हम उलझ जाते हैं तो बुद्धि, दिल, आत्मा, आत्मीयता को उपेक्षित कर देते हैं।विद्यार्थी जीवन, गुरु, साधक जीवन का मतलब आखिर ब्रह्मचर्य जीवन  क्यों? हमारी चेतना व समझ कब आगे के स्तरों पर बढ़ती है?


विद्यार्थियों के लिए सन्देश!!
""""""""""""""''''''''''"""""""अशोकबिन्दु

कैरियर विशेषज्ञों का मानना है कि  श्रेष्ठ विद्यार्थियों व कम्प्टीशन तैयारी हेतु प्रतिदिन आठ घण्टा स्वाध्याय आबश्यक है। वास्तव में देखा गया है कि लगनशील या वास्तविक विद्यार्थियों को स्वाध्याय के अलावा अन्य कार्यों के लिए कम ही फ़ुर्सत मिलती है।
विद्यार्थियों को निम्न विषयों का अध्ययन प्रतिदिन आवश्यक है-
@हिंदी व्याकरण
@अंग्रेजी ग्रामर
@ संस्कृत व्याकरण
@ गणित
@ विज्ञान
@ इतिहास
@ भूगोल
@ नागरिक शास्त्र
@ अर्थशास्त्र
@अन्य

विद्यार्थियों को छोंडो,शिक्षक कहते मिल जाते हैं कि आठ आठ घण्टे कौन पढ़ता होगा?लेकिन हमने देखा है, कुछ को आठ घण्टे ही नहीं, अठारह अठारह घण्टे।पढ़ते पढ़ते सोना, सोते सोते पढ़ना।

किसी के विद्यार्थी होने का मतलब क्या है?अभ्यासी होने का मतलब क्या है?शिक्षक होने का मतलब क्या है? समाज की नजर में जीना नहीं, जातियों मजहबों की नजर में जीना नहीं वरन ज्ञान की नजर में जीना।अंतर्ज्ञान के बिना ज्ञान भी आडम्बर।






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