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Tuesday, April 5, 2011

ईर्ष्या and more !



ईर्ष्या तू न गई मेरे मन से !




अतृप्त मन की ही एक विशेषता है-ईर्ष्या की उपस्थिति.इस जगत में आने के बाद इंसान अनेक इच्छाओं से अपने मन को गुलाम बना लेता है.इच्छाएं पूरी न होने पर मन में अनेक विकार पैदा हो जाते हैं.जिसके परिणाम स्वरुप शरीर,परिवार व समाज भी प्रभावित होता है.हमारे सनातन विद्वानों ने जीवन का आधार धर्म माना था और प्रारम्भिक 25 वर्ष तक के जीवन की दशा ब्रह्मचर्य मानी थी .जिसका उद्देश्य माया ,मोह,लोभ,मद,क्रोध,आदि के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रशिक्षण न था लेकिन आज के भौतिक भोगवादीयुग मेँ दस उम्र पार करते करते ही इंसान अपनी सारी शक्तियों की दशा दिशा भौतिक भोगवादी बना लेता है.ऐसे में भी मन जब अतृप्त रह जाता है तब सामने वाले की सफलता को देख कर मन यदि ईर्ष्या में भर जाता है तो मन में खिन्नता,चिड़चिड़ापन,,निराशा,आदि आने लगती है.इससे फिर हमारा मस्तिष्क,हृदय,फेफड़े,पेट,आदि अंग प्रभावित होते हैं और शरीर अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाता है .हमारे अन्वेषण कह रहे हैं कि जो सांसारिक वस्तुओं के आनन्द में न पड़ कर आध्यात्मिक, धार्मिक, मानवीय मूल्यों के आनन्द में व सत्विक या उदार जीवन जीते हैं उन्हें दुख महसूस नहीं होते .सुख दुख तो मानव का नजरिया होता है.यदि हम ईर्ष्या से प्राप्त नगेटिव ऊर्जा को पाजटिव दिशा दे अपना आत्म साक्षात्कार कर स्पर्धा में अपने को रखो ईर्ष्या में नहीं.



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