समाज को हर वक्त जेहाद की आवश्यकता है.अनेक महापुरुषोँ के जीवन से स्पष्ट होता है समाज का कोई धर्म नहीँ होता.समाज भेँड़ की चाल व तमाशबीन होता है.जब इस धरती पर महापुरुष होते हैँ तो कुछ लोगोँ को छोड़ समाज उनके लिए तो कुछ नहीँ कर पाता ,हाँ ! कुप्रबन्धन मेँ सहायक तत्वोँ का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से समर्थन अवश्य करता नजर आता है.समाज तो अर्जुन की तरह अपना गाण्डीव रखे हुए की
भाँति है.जो माया मोह मेँ अपना धर्म भूल जाता है.उसे कृष्ण रुपी जाग्रत आत्मा की पकड़ चाहिए.जेहाद अर्थात धर्म युद्व के पथ पर कोई अपना नहीँ होता.आदि काल से लेकर अब तक प्रत्येक सम्प्रदाय मेँ किसी न किसी रुप मेँ धर्म की मशाल ले कर चलने वाले रहे हैँ और आते रहेँगे.जिनके जीवन मेँ चाहे घटनात्मक दृष्टि से असमानता हो लेकिन दर्शनात्मक तथ्य हमेँ तो समान लगते हैँ.
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