" कैसी बिडंबना है कि जो मुफ्तखोरी,मक्कारी,बेईमानी से पैसा कमाये वह बड़ा आदमी .जो खुन पसीना एक करके मेहनत की रोटी ईमानदारी से खाए वह छोटा आदमी.इसे कहते है सामाजिक भ्रष्टाचार."मैं काफी वर्ष पहले से सामाजिकता के स्थान पर इन्सानियत व करुणा की वकालत करता आया हूँ . सार्वभौमिक ज्ञान से हट कर सामाजिकता का बहाने संकीर्णता को जीते रहते हैं .धर्म,अध्यात्म,शिक्षा,आदि तक को भौतिक सुखों के लिए जीते है.संत कबीर तक को कहना पड़ा कि मैं दुनिया में जो देने आया वह कोई लेने ही आता.
समाज में इन्सान की कोई कीमत नहीं है. कीमत उसके धन वैभव की है .
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