ब्रह्मांडीय मानव शरीर:सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर::अशोकबिन्दु
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दुनिया के सन्तों ने जो कि वास्तव में सन्त है और जाति मजहब,कर्मकांडो से ऊपर उठ कर सिर्फ प्रकृति अभियान व अनन्त यात्रा के साक्षी हैं। ढाई हजार वर्ष पहले तक आज की भांति कट्टरता व सीमांकन न था।विश्व के सभी सन्त कहीं भी आ जा सकते थे।
सन्त परम्परा में एक हुए हैं- राम तीर्थ।जब वे अमेरिका पहुंचे तो पत्रकारों ने उनसे प्रश्न कर दिया यह दुनिया किसने बनाई उनके मुंह से जवाब निकला -हमने। अगले से सुबह दुनिया के तमाम अखबार उनकी आलोचना कर रहे थे लेकिन कुछ संत उनका समर्थन कर रहे थे ।आखिर ऐसा क्यों ?किसी सूफी संत ने देवी देवताओं से तक ऊपर संतो को माना है ।अयोध्या में श्री राम वनवास के दौरान संतो के सामने सिर ही झुकाते रहे ।
अनंत यात्रा का जब हम विभिन्न शास्त्रों के माध्यम से अध्ययन करते हैं तब भी हमें पता चलता है कि एक दशा ऐसी होती है जब व्यक्ति पूरे ब्रह्मांड,अनंत यात्रा से जुड़ सकता है।
कहा गया है कि ऋषि पद वसु एक क्षेत्र विशेष की प्रकृति को भी प्रभावित करता है।इससे आगे का पद ध्रुव तो काफी व्यापक होता है।इसके बाद भी आगे अनेक आध्यत्मिक स्तर व पद हैं।
रामकृष्ण परमहंस ने तक सिर्फ 01.98 प्रतिशत से कम को जगत मूल से जुड़ा बताया है।ये भी बस जगत मूल के चारो ओर चक्कर लगाते मिलते हैं। समाज व दुनिया के पैमानों से उसे नहीं नापा जा सकता जो अनन्त है या अनन्त की ओर है।मीरा की भक्ति तो लोक मर्यादा ,कुल मर्यादा को चाहते हुए भी न चाह पातीं। अनन्त तरंगों का साक्षी होना तो चमत्कार बन जाता है लेकिन समाज व मानव की धारणाओं पर ठोकर।
हमारा व्यक्तित्व अनन्त यात्रा की जिम्मेदारी है।बस, उसे उजागर करना होता है।अनन्त यात्रा के समक्ष, ब्रहाण्ड व ब्रह्मण्डों के समक्ष हमारा व्यक्तित्व क्या है?कुछ भी नहीं और सब कुछ।सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर।
हम तीन रूप रखते हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। आइंस्टीन तो कहते हैं कि हमें ईंट में तक रोशनी दिखाई देती है।उनकी डायरी को अभी सिर्फ 10 प्रतिशत ही समझा जा सका है।
हम पांच तत्वों से बना अपना ये शरीर रखते हैं।ये आकाश तत्व क्या है? हम अपने में एक प्रकाश व्यक्तित्व भी रखते हैं।जिसे हम ब्रह्मांडीय मानवीय व्यक्तित्व भी कह सकते हैं। हमारे अंदर विकास की अनन्त सम्भावनाएं छिपी हुई हैं।इस लिए हम विकासशील है लेकिन पूर्व विकसित नहीं।जहां अनन्त है वहां तो निरन्तर है।