आधुनिक भारत मेँ वैज्ञानिक अध्यात्म के जगत मेँ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य का योगदान सराहनीय रहेगा. विशेष रूप से उनके द्वारा 'ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ' की स्थापना के लिए हम जैसे युवा बड़े ऋणी रहेँगे. 'यज्ञपैथी' की खोज विश्व के लिए वरदान बनने जा ही रहा है.
मैँ व्यक्तिपूजा का विरोधी रहा हूँ.हम तक धरती पर हैँ प्रकृति का सम्मान करते रहना है.आत्म साक्षात्कार के साथ साथ महापुरुषोँ से प्रेरणा लेते रहना है.हमने कभी ओशो,कभी जयगुरुदेव,कभी अन्य की लोगोँ को आलोचना करते देखा है और वे जिसके अनुयायी होते है,उसके पीछे अन्धे हो जाते हैँ .मैँ किसी का अनुयायी नहीँ बनना चाहता.बस,आत्म साक्षात्कार,सत्य
अन्वेषण,स्वाध्याय,सम्वाद,मुलाकात,आदि के माध्यम से अपने अन्तर जगत को अपनी आत्मा मेँ लीन कर देना चाहता हूँ.अनुयायी तो झूठे होते है,वे लकीर के फकीर होते है.सुबह से शाम,शाम से सुबह तक अपने कर्मोँ के प्रति वे जो नियति रखते हैँ,वह निन्दनीय हो सकती है.महापुरुषोँ के दर्शन के खिलाफ भी देखी है मैने इनकी सोच.एक दो घण्टे स्थूल रूप से अपने महापुरूष के लिए समय देने का मतलब यह नहीँ हो
जाता कि हम श्रेष्ठ हो गये, सोँच से आर्य हो गये.
मैँ जब कक्षा 5 का विद्यार्थी था ,तब से मेँ अखण्ड ज्योति पत्रिका व आचार्य जी से सम्बन्धित साहित्य पढ़ता आया हूँ.कक्षा 12 मेँ आते आते ओशो ,ओरसन स्वेट मार्डेन,आर्य साहित्य,आदि का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था.
लेकिन किताबेँ पढ़ डालना व पढ़ लेने मेँ फर्क होता है. आत्मसाक्षात्कार व समाज के लिए भी समय देना आवश्यक है.
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के जन्म के अवसर पर तटस्थ विद्वानोँ व दार्शनिकोँ को मेरा शत् शत् नमन् !
एक नई वैचारिक क्रान्ति के साथ-
http://www.ashokbindu.blogspot.com/
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